Sunday, September 19, 2010

सर्वहारा संस्कृति क्या है और क्या यह संभव है?

लियोंन त्रात्सकी

हर शासक वर्ग अपनी संस्कृति का निर्माण करता है, और उसी से चलते अपनी कला का भी. इतिहास हमें क्लासिकीय पुरातन(classical antiquity) और पूरब की गुलामी-व्यवस्था से पैदा होने वाली संस्कृतियों का ज्ञान देता है. वह हमें मध्ययुगीन यूरोप की सामंती संस्कृति और वर्तमान की और बुर्जुआ संस्कृति ( जो अभी दुनिया पर राज करती है) के बारे में भी बताती है. इससे यह निष्कर्ष निकलती है कि सर्वहारा वर्ग को भी अपनी संस्कृति और अपनी कला का निर्माण करना पड़ेगा.

पर सवाल सतही स्तर पर जितना सरल दिखाई देता है उससे ज्यादा कठिन है. वे समाज जिनमे गुलामो के मालिक ही शासक वर्ग हुआ करते थे वे कई सदियों तक अस्तित्व में रहे. वही बात सामंतवाद के बारे में भी कहा जा सकता है . बुर्जुआ समाज भी- अगर उसकी गिनती उसके खुली और कोलाहलभरी अभिव्यक्ति के समय यानि कि पुनर्जागरण (Renaissance) के समय से किया जाये - पांच शताब्दियों से अस्तित्मान है. हालाँकि उन्नीसवीं सदी तक या फिर ज्यादा सटीक रूप से कहे तो उन्नीसवी सदी के द्वितीय भाग तक उसकी पूर्ण विकास नहीं हो पाया था. इतिहास बताता है कि एक नए शासक वर्ग के अनुरूप एक नयी संस्कृति की निर्माण में काफी समय लगता है और वह अपनी पूर्ण अवस्था में तभी पहुचती है जब वह वर्ग अपनी राजनेतिक पतन की और अग्रसर होने वाला होता है.


क्या सर्वहारा वर्ग के पास अपनी एक "सर्वहारा संस्कृति" निर्माण के लिए पर्याप्त समय रह पायेगा? गुलाम मालिक, सामंती प्रभु या पूंजीपति वर्ग के सत्ता के विपरीत सर्वहारा अपनी तानाशाही को संक्रमण की एक संक्षिप्त अवधि मानता है. जब हम 'समाजवाद की और संक्रमण' के बारे में अति-आशावादी विचारों को ख़ारिज करते है तब हमारा अभिप्राय यह होता है कि विश्व स्तर पर सामाजिक क्रांति का अवधि महीने या साल नहीं बल्कि दशकें होंगी - लेकिन दशकें; शताब्दी नहीं और हजारो साल तो निश्चित रूप से नहीं. क्या इस समय के अन्दर सर्वहारा एक नई संस्कृति का निर्माण कर सकता है?इस बात में शंका होना स्वाभाविक है क्योंकि सामाजिक क्रांति का समय भयंकर वर्ग -संघर्ष का समय होता है जिसमे विनाश का अनुपात निर्माण से ज्यादा हावी रहता हैं. सर्वहारा का मूल उर्जा इस समय सत्ता हासिल करने, उसे बनाये रखने और उसे अधिक मजबूत बनाने में ही खर्च होगा. अपनी अस्तित्व को बनाये रखने और संघर्ष को आगे जारी रखने के लिए यह बहुत जरुरी है. इस क्रांतिकारी समय में सर्वहारा अपनी वर्ग चरित्र की उच्चतम तनाव और पूर्ण अभिव्यक्ति तक पहुचेगा और इसी सीमा के अन्दर सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का सम्भावना का सवाल भी बंधा रहेगा.

दूसरी और जैसे जैसे नयी व्यवस्था आकस्मिक राजनैतिक और सैन्य हस्तक्षेप की संभावनाओ से सुरक्षित होता जायेगा, और जैसे जैसे सांस्कृतिक सृजन के लिए परिस्थितिया अधिक अनुकूल होता जायेगा, ठीक उसी समय सर्वहारा वर्ग भी धीरे धीरे टूटकर अपनी वर्ग विशेषताओ से मुक्त होता जायेगा; और एक व्यापक समाजवादी समुदाय में विलीन होता जायेगा. दुसरे शब्दों में, सर्वहारा तानाशाही के अवधि के दौरान एक व्यापक और ऐतिहासिक पैमाने पर नयी संस्कृति के निर्माण का सवाल ही खड़ा नहीं होता. सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का शुरुआत उसी समय हो पायेगा जब इतिहास में अद्वितीय तानाशाही की उस लोह चंगुल (यानि कि सर्वहारा तानाशाही की) की जरुरत ख़त्म हो जाएगी, जब उसका वर्ग चरित्र नहीं रह जायेगा.

इससे यह निष्कर्ष निकलता हुआ नजर आता है कि "सर्वहारा संस्कृति " जैसा कोई चीज़ नहीं होता और वह भविष्य में भी संभव नहीं होगा और उसके लिए अफ़सोस का भी कोई कारण नहीं है. सर्वहारा "वर्ग-संस्कृति" को ख़त्म करने के लिए सत्ता अपने हाथों में लेता है ताकि एक "मानव-संस्कृति" के निर्माण के लिए रास्ता खोला जा सके. हम अक्सर इस बात को भूल जातें हैं.


जब क्रांतियों के एक श्रृंखला के दौरान बुर्जुआ राज्य सत्ता पर अपना कब्ज़ा जमा रहा था उससे कई शताब्दिया पहले से ही बुर्जुआ संस्कृति का विकास होना शुरु हो गया था. उस समय भी -जब बुर्जुआ लगभग सभी अधिकारों से वंचित - सिर्फ एक third estate था, उसने संस्कृति के सभी क्षेत्रों में एक महान और क्रमशः बढ़ती हुई योगदान दिया. वास्तुकला के क्षेत्र में यह विशेष रूप से स्पष्ट हैं. गोथिक चर्च का निर्माण अचानक किसी धार्मिक आवेग के प्रेरणा के तहत नहीं किया गया था.

कोलोन गिरजाघर के निर्माण, उसकी संरचना और मूर्तिकला, गुफाकालिन समय से इंसानियत की वास्तुशिल्पी अनुभव को समेत लेती है और एक नई शैली के साथ इन अनुभवों के तत्वों का मिश्रण कर उस तत्कालीन युग की संस्कृति को व्यक्त करती है - जो अंतिम विश्लेषण में - उस युग की सामाजिक सरंचना और तकनीक है.
गुइल्ड (guild ) के पुराने पूर्व-बुर्जुआ ही गोथिक के असली निर्माता थे. जब यह बुर्जुआ बढ़ने और मजबूत होने लगा, यानि कि जब वह संपन्न होता गया, उसने सचेत और सक्रिय रूप से गोथिक शेली का प्रयाग किया और उससे भी आगे निकलकर स्थापत्य का अपना ही एक शैली विकसित कर डाला - जिसका प्रयोग चर्चो के लिए नहीं बल्कि बुर्जुआ की महलो के लिए होना था.
इस तरह गोथिक को आधार बनाते हुए वे अब पुरातनता(antiquity) की और मुड़े - खास तौर पर रोमन और मोरिश(Moorish) वास्तुकला की तरफ- और इन सबका प्रयोग नया शहरी समुदाय (जिसका उदय पूंजीवाद के कारण ही हुआ) का जरुरत और स्थिति को देखते हुए किया गया, जिससे पुनर्जागरण(renaissance) का आविर्भाव हुआ. विशेषज्ञ इस सवाल का खोज जारी रख सकतें हैं कि पुनर्जागरण के पीछे पुरातनता के तत्व ज्यादा सक्रिय थे या गोथिक के और उनमे से कौन ज्यादा प्रभावी थे. लेकिन पुनर्जागरण तभी शुरू होती है जब नया सामाजिक वर्ग (जो पहले ही सांस्कृतिक रूप से सक्रिय हो चूका है) अपने आपको इतना ताकतवर महसूस करें कि वह गोथिक के पदों तले से बाहर निकल आयें और गोथिक तथा अतीत के अन्य शैलियों तथा तकनीकों को अपनी वर्तमान की कलात्मक जरूरतों के पूर्ति के लिए कच्चा-माल (raw materials) के रूप में देखें. यही बात अन्य कलाओं के बारे में भी कहा जा सकता है. लेकिन वास्तुकला की खासियत है कि यह उपयोगितावादी (Utilitarianism) उद्देश्यो और सामग्रियों पर सीधे रूप से निर्भयी है. इसलिए वह बदलते शेलियों के द्वन्द को साफ़ रूप में दिखा पाती हैं. लेकिन बाकी अन्य कलाओं के अधिक लचीले होने के चलते वे यह द्वन्द सीधे प्रत्यक्ष कराने में अक्सर सफल नहीं हो पातें हैं.

पुनर्जागरण और सुधार(Reformation ) - जिन्होंने सामंती समाज के अन्दर बुर्जुआ के लिए अधिक अनुकूल बौद्धिक और राजनैतिक परिस्थितिओं का निर्माण किया- के समय लेकर से क्रांतियों (जैसे फ़्रांसीसी क्रांति) के समय तक, जब बुर्जुआ वर्ग के हाथों सत्ता सौपां गया - तीन-चार शताब्दियों का एक लम्बा अवधि रहा और इस दौरान बुर्जुआ के भौतिक और बौद्धिक उर्जाओं में लगातार बढ़ोतिरी होता रहा. महान फ़्रांसिसी क्रांति और उसके गर्भ से निकले युद्धों ने कुछ समय के लिए संस्कृति के वस्तुगत स्तर को नीचे ले आया. लेकिन बाद में पूंजीवादी व्यवस्था "प्राकृतिक" और "अनन्त" रूप में स्थापित हो गया. बुर्जुआ संस्कृति का विकास और शेली के रूप में इसका crystallisation - ये सभी चीजें इस बात से निर्धारित हुई कि - मूल रूप से बुर्जुआ का चरित्र एक शोषणकारी और स्वामी(possessing) वर्ग का रहा है. सामंती समाज के अन्दर बुर्जुआ ने न केवल वस्तुगत रूप से खुद को विकसित किया, और ढेरों संपदाएं हस्तगत कीं, बल्कि बुद्धिजीवियों को भी उसने अपनी तरफ लाया और अपनी सांस्कृतिक नीवं (जैसे स्कूल, विश्वविद्यालय, अकादेमियां, अख़बार, पत्रिकाएँ) का निर्माण किया. यह सारी चीजें सीधे राजनैतिक सत्ता हासिल करने की बहुत पहले ही किया गया. यह याद रखना काफी रहेगा कि अपनी अतुलनीय प्रौद्योगिकी, दर्शन, विज्ञान और कला से लेस जर्मन बुर्जुआ ने 1918 तक राजसत्ता का सीधा बागडोर एक सामंती नौकरशाही वर्ग के हाथों देकर रखा, और अपनी हाथों में सत्ता तभी लिया, या ज्यादा सटीक रूप से कहें तो लेने के लिए विवश हुआ - जब जर्मन संस्कृति के वस्तुगत आधार टूटने शुरू हो गया था.

कोई यह तर्क दे सकता है कि - दास व्यवस्था की संस्कृति के निर्माण के लिए अगर हजारों साल लगें तो बुर्जुआ संस्कृति के विकास सिर्फ कुछ शताब्दियों में ही हो गयी. तो फिर कुछ दशकों के अन्दर ही सर्वहारा संस्कृति का भी निर्माण संभव क्यों नहीं हो सकता हैं? वर्तमान जीवन के तकनीकी आधार एक जैसा नहीं है और इसलिए उसका गति भी अलग रहेगा.यह आपत्ति पहली नजर में ठीक लगने के बावजूद वह सवाल की जड़ तक नहीं जा पाता है. बेशक रूप से नयी समाज के विकास के दौरान ऐसा समय आयेगा जब अर्थनीति, सांस्कृतिक जीवन और कला को तेज गति मिलेगी. लेकिन वर्तमान में हम उस गति के बारें में सिर्फ कल्पना ही कर सकतें हैं. एक ऐसा समाज जिसमे दो वक़्त की रोटी के लिए यंत्रनादायक चिंता नहीं करना पड़ेगा, जहाँ सामुदायिक रेस्तौरां सभी के लिए पोष्टिक और अच्छा खाना बनाएगी, जहाँ हर बच्चे को भोजन मिलेगा, वे स्वस्थ रहेंगे और इस माहोल में सूरज की नर्म रौशनी में वे विज्ञानं और कला के प्राथमिक तालीम लेंगे, एक ऐसा समाज जहाँ कोई "बेकार मुंह"(useless mouths ) नहीं रहेंगे, जहाँ इन्सान की मुक्त हो चुकी अहम्(ego ) एक महाशक्तिमान ताकत बन जाएगी- जिसका पूर्ण प्रयोग इस ब्रह्माण्ड को समझने, बदलने और बेहतर बनाने के लिए की जाएगी...ऐसी एक समाज में संस्कृति की गतिशील विकास किसी भी पूर्व समाज से तेज और अतुलनीय होगा. लेकिन ये सभी चीजें एक लम्बी और कठिन चढ़ाई(climbing ) के बाद ही संभव हो पायेगी, जो अभी एक चुनौती के रूप में हमारे सामने हैं. और अभी हम केवल चढ़ाई की अवधि के बारे में ही सिर्फ बात कर रहे हैं.

लेकिन क्या वर्तमान का समय गतिशील नहीं है? बेशक, यह अपनी गति की सर्वोच्च स्तर में है. लेकिन इसकी गतिशीलता राजनीति में ही केंद्रित है. युद्ध और क्रांति गतिशील थे, लेकिन उन्होंने प्रौद्योगिकी और संस्कृति की गतिशीलता को नुकसान पहुँचाया. यह सच है कि युद्ध ने तकनीकी आविष्कार की एक लंबी श्रृंखला तैयार किया. लेकिन इसने जिस भयंकर गरीबी की पैदा की, इसके कारण लम्बे समय के लिए इन आविष्कारों का व्यावहारिक प्रयोग नहीं हो पाएगा. यानि कि जीवन स्तर में क्रांतिकारी परिवर्तन होना अभी दूर हैं. यह रेडियो, उड्डयन और ऐसे बहुत सारी यन्त्र- सम्बन्धी आविष्कारों के बारें में कहा जा सकता हैं.

दूसरी ओर, क्रांति एक नया समाज के लिए जमीन तैयार करता है. लेकिन वो यह पुराने समाज के तरीके- वर्ग संघर्ष , हिंसा, तबाही और विनाश के सहारे करती है. यदि सर्वहारा क्रांति नहीं आया होता, इंसानियत अपनी ही विरोधाभासों से गला घोट दी गयी होती. क्रांति ने समाज और संस्कृति को बचा लिया है, लेकिन यह सबसे क्रूरतम तरीकों के माध्यम से ही किया जा सका. अभी सभी सक्रिय उर्जा राजनीति और क्रांतिकारी संघर्ष में ही केंद्रित हैं जो सभी बाधाओं को क्रूरतम तरीके से कुचल दे रहा है. इस प्रक्रिया में, निश्चित रूप से रूकावट और प्रवाह दोनों रहा है, सैन्य साम्यवाद(War Communism ) से नेप(New Economic Policy )में संक्रमण चूका है जो अपनी विभिन्न चरणों से गुजर रहा है.

अपने सार में, 'सर्वहारा की तानाशाही' एक नए समाज की संस्कृति के निर्माण के लिए बनी संगठन नहीं है बल्कि यह एक क्रांतिकारी और सैन्य तंत्र है जो नए समाज को लाने के लिए ही संघर्ष कर रही है. यह भुला नहीं जाना चाहिए. हमें लगता है कि भविष्य के इतिहासकार अगस्त, 1914 को पुराने समाज के समापन बिंदु (culminating point ) के रूप में देखेंगे जब बुर्जुआ संस्कृति की बोखलाई शक्तियो ने दुनिया को एक साम्राज्यवादी युद्ध की आग में झोक दिया था. मानव जाति के नयी इतिहास की शुरुआत 7 नवम्बर 1917 के तारीख से किया जाएगा. हमें लगता है कि मानव जाति के विकास के बुनियादी स्तरों को कुछ इस तरह स्थापित किया जाएगा: आदिम मनुष्य के 'प्रागैतिहासिक' इतिहास; गुलामी पर आधारित प्राचीन इतिहास; कृषि-दासता पर आधारित मध्य युग; मजदूरी के शोषण पर आधारित पूंजीवाद ; और अंत में - समाजवादी समाज, जिसका पीड़ारहित संक्रमण (हमे उम्मीद है) एक राज्यविहीन(stateless ) कम्यून में हो जायेगा. आने वाली बीस, तीस या पचास साल की विश्व सर्वहारा क्रांति को इतिहास में एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था तक की गयी कठिन चढ़ाई के रूप में देखा जायेगा, लेकिन सर्वहारा संस्कृति के एक स्वतन्त्र युग के रूप में बिलकुल नहीं.
वर्तमान के राहत वाली इन वर्षों में इन सवालों पर कुछ भ्रम हमारे सोवियत गणराज्य में पैदा हो सकता है. हमने संस्कृति के सवालों को अपना तात्कालिक सवाल बना दिया है. दूर भविष्य में वर्तमान के समस्याओं को पेश(project ) करके, कोई सालों की लंबी श्रृंखला के तहत सर्वहारा संस्कृति के बारे में सोच सकता है.
लेकिन हमारा यह 'संस्कृति निर्माण' कितना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण क्यों न हो, यह सवाल पूरी तरह से यूरोपीय तथा विश्व क्रांति के सवालों से जुड़ा हुआ है. हम, पहले की तरह अभी भी इस अभियान के सैनिक मात्र है. हम एक दिन के लिए शिविर लगाये हुए हैं. हमें अपनी कमीज धोनी है, बालो की कटाई और कंघी करनी हैं और सबसे महत्वपूर्ण- हमें अपनी राइफलो को साफ और ग्रीज़ करना है. हमारे वर्तमान के सारे आर्थिक और सांस्कृतिक कार्यों का मतलब सिर्फ यही है कि इन दो लड़ाइयों और अभियानों के बीच हम अपनी कतारों को संभाल रख सकें. मूल लड़ाईयां अभी बाकी है और वे शायद अभी ज्यादा दूर नहीं. हमारा युग अभी नई संस्कृति का युग नहीं बना है, बल्कि उसकी और एक प्रवेश द्वार मात्र है. हमें राजनैतिक रूप से सबसे पहले पुराने संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्वों को आत्मसात करना है ताकि कम-से-कम एक नयी संस्कृति की निर्माण की राह को प्रशस्त किया जा सके.

यह विशेष रूप से स्पष्ट हो जाता है जब इस समस्या को इसकी अंतरराष्ट्रीय चरित्र के सन्दर्भ से देखा जाता है. सर्वहारा पहले से और अभी भी एक non -possessive वर्ग है. इसी के चलते बुर्जुआ संस्कृति के उन उच्चतम तत्वों को- जो इंसानियत के महानतम आविष्कारों के भंडार तक पहुँच चुकी है- प्राप्त करने में इसे बाधा पहुचती रही है. एक निश्चित अर्थ में, यह कहा जा सकता है कि सर्वहारा वर्ग भी, कम से कम यूरोपीय सर्वहारा वर्ग, अपने 'पुनःसुधार' (Reformation ) का युग पार कर चुका है. यह उन्नीसवी सदी के द्वितीय भाग में हुआ जब सीधे राजसत्ता पर कब्ज़ा करने की कोशिश किये बिना, बुर्जुआ व्यवस्था के अन्दर ही सर्वहारा ने अपने विकास के लिए अधिक अनुकूल क़ानूनी स्थिति लाने में सक्षम हुई.
लेकिन यहाँ पहली बात तो यह है कि पुनःसुधार (संसदवाद तथा सामाजिक सुधार)का यह समय [जो द्वितीय इंटरनेशनल का भी समय रहा] इतिहास प्रदत्त वह समय था जो बुर्जुआ को भी मिला था; लेकिन अगर बुर्जुआ को शताब्दिया मिली तो सर्वहारा को सिर्फ कुछ दशकें ही मिल पाई. दूसरी- सर्वहारा अपनी इन तैयारियों के वर्षो में एक संपन्न वर्ग बिलकुल नहीं बन पाया, और अपने हाथों में वस्तुगत शक्तियों को केन्द्रित करने में नाकाम रहे. इसके विपरीत- सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो - वह ज्यादा से ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बनता गया. बुर्जुआ वर्ग सत्ता में आये तो पूर्ण रूप से अपने समय के संस्कृति से लेस होकर. दूसरी तरफ - सर्वहारा, संस्कृति को अपने वश में करने की तीव्र आवश्यकता की भार धोते हुए सत्ता में आये. सत्ता पर काबिज़ सर्वहारा का पहला चुनौती यह है कि - वह संस्कृति के पुरे तंत्र(उद्योगों, स्कूलों, प्रकाशन, प्रेस, थिएटर आदि)- जिसने पहले कभी उसकी सेवा नहीं की -को अपने हाथों में ले लें और इस तरह स्वयं के लिए संस्कृति का रास्ता प्रशस्त करें.

रूस में हमारा काम - इस देश की समूचे सांस्कृतिक परंपरा की दीनता और पिछले दशक की घटनाओ के कारण हुई भौतिक विनाश के चलते बहुत ही जटिल हो गया है. सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद, और इसे बनाये रखने तथा मजबूत करने के लिए लिए चली छह साल के संघर्ष के बाद, हमारे सर्वहारा को मजबूरन अपनी पूरी की पूरी उर्जा भौतिक अस्तित्व के न्यूनतम स्थितियों के निर्माण के लिए लगाना पड़ रहा है और संस्कृति के ABC से - यहाँ ABC का मतलब इनकी शाब्दिक अर्थ से है- शुरू करना पड़ रहा है. यह अकारण नहीं है कि सोवियत शासन के दसवी वर्षगांठ तक हमने सार्वभौमिक साक्षरता का ही लक्ष तय किया हुआ है!

कोई इस बात पर आपत्ति कर सकता है कि मैने 'सर्वहारा संस्कृति' की अवधारणा का प्रयोग एक बहुत ही व्यापक अर्थ में किया है. कि अगर कोई सम्पूर्ण और पूरी तरह से विकसित सर्वहारा संस्कृति भले ही संभव न हो पाए, फिर भी साम्यवादी समाज में लुप्त हो जाने से पहले संस्कृति पर सर्वहारा अपना गहरा छाप जरुर छोड़ जा सकता है. इस तरह की आपत्तिओ को सबसे पहले उस पोजीसन से गंभीर पश्च्चाद्गमन के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए - जहाँ यह कहा जाता हो कि - "एक सर्वहारा संस्कृति जरुर बनेगा". इस बात पर कोई सवाल ही नहीं है कि अपने तानाशाही के दौरान संस्कृति के क्षेत्र में सर्वहारा अपना गहरा छाप जरुर छोड़ जायेगा. लेकिन यह बात उस अवधारणा से कोसों दूर है जहाँ सर्वहारा संस्कृति से अभिप्राय - एक विकसित और पूर्ण रूप से सामंजस्यपूर्ण ज्ञान और कला की प्रणाली से हैं जो कर्म के सभी भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों को समेटा हुआ है. करोड़ों लोगों के लिए इतिहास में पहली बार पढ़ना लिखना और गणित करने सीखना अपने आपमें एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक सच्चाई है. नई संस्कृति किसी विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक के लिए बना कोई भव्य-कुलीन-संस्कृति नहीं, बल्कि वह एक जन संस्कृति होगा , जो सार्वभौमिक और लोकप्रिय होगा. गुणवत्ता मात्रा में परिवर्तित होगा; और संस्कृति के मात्रा में बढ़ोतिरी के साथ साथ उसकी स्तरों में भी वृद्धि होगी और उसकी चरित्रों में परिवर्तन लाएगी.
लेकिन यह प्रक्रिया ऐतिहासिक चरणों की एक श्रृंखला के माध्यम से ही विकसित होगा. जिस हद तक यह सफल होगा, सर्वहारा की वर्ग चरित्र को वह उतना ही कमजोर करता जायेगा और इस तरह से सर्वहारा संस्कृति के आधार को मिटा दिया जायेगा.

लेकिन मजदुर वर्ग के उन्नत तत्वों के बारे में क्या ख्याल है? उनके बोद्धिक हरावल के बारें में? क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि इन हलको में, छोटे पैमाने पर ही सही, सर्वहारा संस्कृति का विकास -लगातार हो रहा है? क्या हमारे पास समाजवादी अकादमी नहीं है? और रडीकल अध्यापकें? सवाल को इतने अमूर्त रूप से उठाया जाना समस्यास्पद है - और कुछ लोग जरुर इस बात के दोषी हैं. इनके विचार से ऐसा प्रतीत होता है- मानों प्रयोगशाला की पद्धतियों द्वारा सर्वहारा संस्कृति का निर्माण किया जा सकता है !

वास्तव में, एक संस्कृति की बनावट उन जगहों पर गुत्थी हुई रहती है जहा उस संस्कृति के निर्माता वर्ग और उसके बुद्धिजीवी समूहों का अंतर्संबंध बनतें हैं. बुर्जुआ संस्कृति और उसकी तकनीकी, राजनीतिक, दार्शनिक और कलात्मक पहलुओं का विकास पूंजीपति वर्ग और इसके आविष्कारक, नेताओं, विचारकों और कवियों की अंतर्संबंधों के चलते हुआ था. पाठक ने लेखक को बनाया और लेखक ने पाठक को बनाया. यही बात सर्वहारा के बारे में और भी सच है क्योंकि इसके अर्थशास्त्र, राजनीति और संस्कृति का निर्माण जनता के सृजनात्मक गतिविधियों के आधार पर ही किया जा सकता है.

निकट भविष्य में सर्वहारा बुद्धिजीवियों का मुख्य कार्य अमूर्त रूप से किसी नयी संस्कृति का गठन करना नहीं हैं - चाहे उसकी कोई आधार हो या न हो - बल्कि - एक व्यवस्थित, योजनाबद्ध-और साथ ही साथ आलोचनात्मक तरीके द्वारा पिछड़े हुए जनता तक वर्तमान के संस्कृति के आवश्यक तत्वों को ले जाना है. एक वर्ग के पीछे रहकर उस वर्ग के संस्कृति का विकास करना मुश्किल है. और मजदूर वर्ग के सहयोग तथा उसके ऐतिहासिक विकास के साथ रहकर संस्कृति निर्माण करने लिए समाजवाद का खाका निर्माण करना भी जरुरी है. इस प्रक्रिया मैं समाज के वर्ग विशेषताएं मजबूत नहीं बल्कि कमजोर होना शुरू हो जायेगा और क्रांति की सफलता की अनुपात से वे ख़त्म होते जायेंगे. "सर्वहारा तानाशाही" की मुक्तिदायी विशिष्टता इसी बात में निहित है कि वह एक संक्षिप अवधि के लिए होती है जिसके द्वारा -एकजुटता पर आधारित एक संस्कृति एवं वर्ग-विहीन एक समाज - की स्थापना के लिए नीवं रखी जा सके; उसकी राह को साफ़ किया जा सकें.

मजदुर वर्ग की विकास के लिए जरुरी "संस्कृति-आत्मसात्करण" (culture bearing ) की अवधि को समझने के लिए वर्गों की नहीं बल्कि पीढ़ीयों की ऐतिहासिक विकास (succession ) को समझने की जरुरत है. उनकी निरंतरता इस बात में निहित होती है कि हर पीढ़ी अतीत से विकसित होती आ रही संस्कृति की भंडार में अपने समय की उपलब्धियों का योगदान देती है. लेकिन इससे पहले यह जरुरी है कि हर नया पीढ़ी प्रशिक्षण की एक अवधि से गुजरे. वे मौजूदा संस्कृति को अपना लेते हैं और अपनी ढाल में इसे बदल देती है, और इस तरह पुराने पीढ़ी से यह अलग एक नयी चीज़ हो जाती है.

लेकिन आत्मसात्करण की यह प्रक्रिया अभी एक नया सर्जन नहीं बन पाया है. यानि अभी नए सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण होना बाकी है; और यह प्रक्रिया इस दिशा में पहला कदम-भर ही है. कुछ हद तक यही बात मजदुर वर्ग के बारे में भी कहा जा सकता है जो अभी युग-निर्माण करने वाली सृजनात्मक कर्मो में व्यस्त है. इसमें केवल यह जोड़ना जरुरी है की अपने सांस्कृतिक प्रशिक्षण की अवधि पुरे होने से पहले ही सर्वहारा एक वर्ग के रूप में अपना अस्तित्व खो देगा.


यह नहीं भूलना चाहिए कि सामंती समाज के अन्दर ही बुर्जुआ के उच्च तत्वों ने अपनी सांस्कृतिक प्रशिक्षण पूरी कर ली थी. यानि सत्ता में आने से पहले ही बुर्जुआ ने सांस्कृतिक रूप से पुराने शासको को चुनोती दे दी थी और स्वयं संस्कृति का सृजक बन गया था. यह बात आम रूप से सर्वहारा - और खास तौर पर रुसी सर्वहारा के सन्दर्भ में अलग हो जाती है. बुर्जुआ संस्कृति के मुलभुत तत्वों को आत्मसात कर पाने से पहले ही सर्वहारा को मजबूरन सत्ता हासिल करना पड़ा है. वह क्रांतिकारी हिंसा द्वारा बुर्जुआ समाज को उखाड़ देने के लिए विवश है क्योंकि इस समाज के चलते कभी भी उनका(सर्वहारा का) संस्कृति तक पहुँच नहीं बन पाता हैं. जनता की सांस्कृतिक प्यास को बुझाने के लिए सर्वहारा राज्य के तंत्र को एक शक्तिशाली पम्प (pump ) में बदल देने की कोशिश करता है. यह एक बड़ा ही ऐतिहासिक महत्व का काम है. लेकिन - शब्दों का सतर्कतापूर्ण प्रयोग किया जाये तो - इसे अभी भी "सर्वहारा संस्कृति का निर्माण" नहीं कहा जा सकता. "सर्वहारा संस्कृति", "सर्वहारा कला" आदि शब्दों का प्रयोग दस में से तीन मामलों में (भविष्य में आने वाली) साम्यवादी समाज की संस्कृति और कला को समझाने की अर्थ में किया जाता है; दस में से दो मामलो में इसे यह समझाने के लिए प्रयोग किया जाता है कि सर्वहारा के विशेष समूहों द्वारा पूर्व-सर्वहारा संस्कृति के अलग अलग तत्वों के आत्मसात्करण की प्रक्रिया चल रही है; और - आखिरी में - दस में से पांच मामलो में यह - शब्द और अवधारणाओ का कुछ ऐसे अदभुत मिश्रणों की और इशारा करता है - जिनका न कोई सर होता है न टांग !

यहाँ - हाल ही का एक उदाहरण है - जो सौ मामलों में से एक हैं - जहाँ "सर्वहारा-संस्कृति" का प्रयोग एक बेहद ही फूहड़, गैर-आलोचनात्मक और खतरनाक रूप में किया गया है. सिजोई (Sizoy ) लिखते हैं - "आर्थिक आधार और उसके अनुरूप बने अधिरचनाएं एक युग की सांस्कृतिक विशेषताओं का निर्माण करती हैं." यहाँ सर्वहारा संस्कृति की युग को बुर्जुआ संस्कृति के धरातल पर रखकर देखा जा रहा है. और जिस 'सर्वहारा की युग' के बारे में यहाँ कहा जा रहा है वह तो दरअसल - एक सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था से दूसरी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था तक - यानि कि पूंजीवाद से समाजवाद तक - होने वाली एक संक्षिप्त संक्रमण काल मात्र है. बुर्जुआ व्यवस्था की स्थापना भी एक संक्रमणकालीन युग से ही होकर गुजरी है. लेकिन बुर्जुआ क्रांतियों की कोशिश यह रही कि - बुर्जुआ वर्ग के वर्चस्व को बनाये रखा जाये- और इसमें वे सफल भी रहे. जबकि सर्वहारा क्रांति का मकसद हैं - जितना कम अवधि में हो सकें - एक वर्ग के रूप में वह खुद को समाप्त कर दे! संक्रमण की इस अवधि का लम्बाई क्रांति की सफलता पर ही पूर्ण निर्भर करती हैं. क्या यह अचरज की बात नहीं हैं -कि कोई इस बात को भूल ही जाये और सर्वहारा संस्कृति की युग को सामंती या बुर्जुआ युग के धरातल पर देखना शुरू करें?

अगर ऐसा है - तो क्या इससे यह प्रतीत होता है कि हमारे पास कोई सर्वहारा विज्ञानं नहीं है? क्या यह तथ्य नहीं है कि - इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा और राजनेतिक-अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना-सर्वहारा संस्कृति के कुछ अमूल्य वैज्ञानिक तत्वों का प्रतिनिधित्व करतें है? बेशक, एक वर्ग के रूप में सर्वहारा को तेयार करने के लिए- और सामान्यतः विज्ञानं के लिए भी- इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा और मूल्य के श्रम सिद्धांत बड़ा ही महत्व का है. तमाम ऐतिहासिक तथा ऐतिहासिक-दार्शनिक संकलनों से भरी पुस्तकालयों से, या अध्यापकों के अटकलों एवं मिथ्याचारों से -ज्यादा वैज्ञानिक तत्व कम्मुनिस्ट मेनिफेस्टो में ही पाया जायेगा. लेकिन क्या कोई यह कह सकता है कि मार्क्सवाद भी सर्वहारा संस्कृति का ही एक प्रतिनिधिस्वरुप उपज मात्र है? (!!). क्या यह कहा जा सकता है कि हम मार्क्सवाद का प्रयोग राजनेतिक संघर्षों में ही नहीं बल्कि व्यापक वैज्ञानिक कार्यों/उपक्रमों में भी पहले से ही करते आये हैं?

मार्क्स और एंगेल्स क्षुद्र-बुर्जुआ लोकतंत्र के कतारों से आये थे और बेशक वे इसी संस्कृति में - न कि किसी सर्वहारा संस्कृति में- पले-बढ़े. अगर कोई मजदुर वर्ग न होता, या अगर कोई हड़ताल, संघर्ष, पीड़ा, या विद्रोह नहीं होते - तो बेशक से, वैज्ञानिक समाजवाद का अस्तित्व भी नहीं होता क्योंकि - उस परिस्थिति में इसकी कोई ऐतिहासिक आवश्यकता नहीं होती. लेकिन वैज्ञानिक समाजवाद का सिद्धांत बुर्जुआ संस्कृति के आधार पर ही बनायीं गयी थी, हालाँकि इसी संस्कृति के खिलाफ इसने युद्ध घोषणा कर दी थी. पूंजीवाद के अंतर्विरोधों के दबावों के चलते बुर्जुआ लोकतंत्र अपने सबसे साहसी, सबसे इमानदार और सबसे दूरदर्शी प्रतिनिधियों के हाथों (जो बुर्जुआ विज्ञानं के सभी महत्वपूर्ण हथियारों से लेस थे) एक महान आत्म-खंडन (Renunciation ) तक पहुंची. ऐसा रहा हे मार्क्सवाद के जन्म का इतिहास. सर्वहारा को मार्क्सवाद में अपना हथियार एकां-एक नहीं मिला और उसका पूर्ण खोज तो आज तक भी नहीं हुआ है. आज के तारीख में यह प्रमुख रूप से राजनेतिक उद्देश्यों को पूरा करने करने के लिए ही प्रयोग में लाया जा रहा है. द्वंदात्मक भौतिकवाद का व्यापक और यथार्थवादी प्रयोग और उसका पद्धतिगत विकास अभी भी भविष्य से गर्भ में ही है.सिर्फ एक समाजवादी समाज में ही मार्क्सवाद का एक तरफ़ा (यानी कि राजनेतिक) प्रयोग ख़त्म होगा और वह वैज्ञानिक निर्माण का एक साधन बन जायेगा. वह आध्यात्मिक संस्कृति का भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व और साधन होगा.

कमोवेश सभी विज्ञानं शासक वर्ग के प्रवृत्तियों को दर्शाता है. प्रकृति को जीतने की व्यावहारिक प्रयासों में कोई विज्ञानं (भौतिकी, रसायन विज्ञान, सामान्य रूप में प्राकृतिक विज्ञान) जितनी करीबी से संग्लग्न होती है, ठीक उतना ही उसका गैर-वर्गीय और मानवीय योगदान होता है. दूसरी तरफ- शोषण के सामाजिक तंत्र(mechanism ) से कोई विज्ञानं( जैसे राजनेतिक अर्थशास्त्र) जितनी करीबी से जुड़ी होती है - या इन्सान के व्यापक एवं सम्पूर्ण अनुभवों को कोई विज्ञानं जितनी अमूर्त तरीके से सामान्यकृत करता है [मनोविज्ञान-यहाँ आशयं उसकी प्रयोगात्मक, शारीरिक(physiological ) अर्थ से नहीं बल्कि उसकी तथाकथित दार्शनिक अर्थ से हैं] - उतना ही वह बुर्जुआ के वर्गीय अहम् को मान चलती है और इंसानी ज्ञान-भंडार में उसका योगदान कम होता जाता है. प्रयोगात्मक विज्ञानं के क्षेत्र में भी वैज्ञानिक ईमानदारी और वस्तुपरकता का अलग अलग उदाहरण मिलता है. अलग अलग दायरों में उनके द्वारा की गयी सामान्यीकरणों को जांचते हुए यह परीक्षण किया जा सकता है. एक सामान्य नियम के रूप में यह देखा जा सकता है कि पद्धतिगत दर्शन - weltanschauung के ऊँचे स्तरों में बुर्जुआ प्रवृत्तियां ज्यादा सक्रिय होती है. इसलिए यह जरुरी है कि विज्ञानं की सरंचना का साफ़-सफाई नीचे से ऊपर तक किया जायें; या ज्यादा सटीक ढंग से कहा जाये तो- ऊपर से नीचे - क्योंकि शुरुआत तो ऊपर की मंजिलों से ही करनी पड़ती है!

लेकिन यह सोचना मूर्खतापूर्ण होगा कि समाजवादी पुनर्निर्माण में प्रयोग करने के लिए बुर्जुआ से विरासत से मिली सभी विज्ञानों को पहले पुनःगठित कर लेना ही पड़ेगा. ऐसा सोचना उस काल्पनिक नीतिवादी की कथन जैसा है जो यह कहता हो: एक नया समाज निर्माण करने से पहले सर्वहारा को कम्युनिस्ट नैतिकता की बुलंदियों तक पहुचना ही पड़ेगा! अगर तथ्य की बात करें यह सही है कि सर्वहारा नीति और विज्ञानं - दोनों को आमूल रूप से बदल देगा; लेकिन ऐसा वह तभी करेगा जब वह एक नया समाज का लगभग निर्माण कर चूका होगा.

क्या हम अपनी बातों में ही गोल-गोल तो नहीं घूम रहे हैं? कोई भला पुराने विज्ञानं और नैतिकता के सहारे नए समाज का निर्माण कैसे कर सकता है? यहाँ हमें थोड़ा द्वंदवाद लाना पड़ेगा - वही द्वंदवाद जिसका बेपनाह प्रयोग हम गीत-कविताओं में, दफ्तरों के बही-खाते में, या गोभी के सूप में करने लगें हैं! काम शुरू करने के लिए सर्वहारा वैनगार्ड को कुछ प्रस्थान बिंदु, कुछ वैज्ञानिक पद्धतियों का जरुरत पड़ेगा जिनके सहारे बुर्जुआ के वैचारिक मोहजाल से दिमाग को आजाद किया जा सकेगा. इनमे से कुछ सर्वहारा सीख रहा है कुछ सीख चूका है. सर्वहारा अपनी मौलिक विधि का परीक्षण कई लड़ाइयों और भिन्न-भिन्न परिस्थियों में कर चूका है. लेकिन अभी यह सर्वहारा विज्ञानं बनने से कोसों दूर हैं. एक क्रांतिकारी वर्ग इसलिए लड़ाई रोक नहीं सकता कि अभी पार्टी ने इलेक्ट्रान के थीसिस के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया है; फ्रायेद की मनोविश्लेषण की सिद्धांत को सही या गलत नहीं बताया है या सापेक्षता की नयी गणितीय खोजो के बारें में निर्णायक विचार नहीं बना पा रहे हैं! यह सही है कि सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद विज्ञानं का ज्ञान हासिल करने या उसके पुनःनिर्माण करने के लिए सर्वहारा के पास ज्यादा अवसर रहेगा. लेकिन यह सिर्फ कहभर देना काफी आसान है जबकि वास्तव में करना उतना ही मुस्किल.

सर्वहारा उस समय तक समाजवादी पुनर्निर्माण का काम स्थगित नहीं रख सकता है जब नए वैज्ञानिकों का दल (जिनमे काफी अभी अपने छोटे छोटे पतलूनो में ही घूम रहे होंगे) तैयार नहीं हो जाते हैं और वे सभी उपकरणों एवं ज्ञान के स्रोतों का परीक्षण एवं सफाया नहीं कर देतें हैं!

सर्वहारा उन चीजों को खारिज करतें हैं जो स्पष्ट रूप से अनावश्यक, झूठे और प्रतिक्रियाशील है. अपने पुनर्निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में वह वर्तमान के विज्ञानं, उसके पद्धति और तथा निष्कर्षों का ही प्रयोग करता है - और इसी के साथ उनमें छिपें प्रतिक्रियाशील तत्वों को भी हजम कर जाता है. ऐसे उपयोगों को उनके व्यावहारिक नतीजों को देखते हुए सही ठहराया जा सकता है क्योंकि जब ऐसा कोई प्रयोग समाजवादी लक्ष के नियंत्रण में किया जाता है - वह धीरे धीरे स्वयं संभलना एवं सिद्धांत के पद्धति एवं निष्कर्षों का चयन करना सीख लेता है. और तब तक नए वैज्ञानिकों का दल भी तैयार हो जायेगा जो नयी परिस्थिति में शिक्षित हो चूका है. किसी भी दर पर सर्वहारा को समाजवादी पुनर्निर्माण काफी ऊँचे स्तरों तक करते रहना पड़ेगा क्योंकि सामान्य तोर पर विज्ञानं का ऊपर से नीचे तक की शुद्धिकरण का सवाल तभी बन पायेगा जब सर्वहारा, समाज की वास्तविक भौतिक सुरक्षा एवं सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा कर रहा होगा. इस बात की आशय उन मार्क्सवादी आलोचनाओं के कर्मो का विरोध करना नहीं है जो काफी लोग -छोटे छोटे समूहों और सेमिनारों में - और अलग अलग क्षेत्रों में विकसित कर रहे हैं. यह काम बहुत ही आवश्यक और उपयोगी है. लेकिन चीजों को नापने की एक विशिष्ट मार्क्सवादी तरीका अपनाया जाना चाहिए जिससे ऐसी प्रयोगों और कोशिशों की गंभीरता को हमारे वर्तमान के उन विराट ऐतिहासिक चुनोतियों के बरक्श रखकर देखा जा सकें और उनकी सीमाओ को समझा जा सकें.

क्या इन बातों से ऐसा प्रतीत हो रहा है - मानों क्रांतिकारी तानाशाही के दौरान भी सर्वहारा की कतारों से विशिष्ट वैज्ञानिक, आविष्कारक, नाटककार या कवियों के पैदा होने का कोई संभावना नहीं है? ऐसा सोचना सही नहीं है. लेकिन अगर मजदुर वर्ग के किसी निजी प्रतिनिधि के व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए- (चाहे वे उपलब्धियां कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो) - "सर्वहारा संस्कृति" शब्द का प्रयोग किया जाये तो वह छिछोरापन ही कहलाया जायेगा. "संस्कृति" के अवधारणा का प्रयोग किसी एक व्यक्ति के देनिक जीवन में हुए किसी छोटे परिवर्तन को दर्शाने के लिए नहीं किया जा सकता है. और न ही किसी वर्ग-संस्कृति के सफलता का मूल्यांकन किसी खास आविष्कारक या कवि का मजदुर होने से किया जा सकता है. संस्कृति ज्ञान और क्षमता का एक आर्गेनिक मिश्रण हैं जो पुरे समाज -या कम से कम उस समाज के शासक वर्ग का चरित्रायण करती है. यह मानवीय श्रम के सभी क्षेत्रों को समेत लेती हैं और उन्हें एकमुष्ठ कर एक व्यवस्था में स्थापित करती हैं. व्यक्तिगत उपलब्धियां इस साधारण स्तर से ऊपर उठती हैं और धीरे धीरे वह इस स्तर को भी ऊंचाई की और ले जाती है.

क्या ऐसा कोई आर्गेनिक अंतर्संबंध हमारे वर्तमान के सर्वहारा कविता और मजदुर वर्ग के सांस्कृतिक कामो के बीच पाया जाता है? यह काफी स्पष्ट है कि ऐसा नहीं है. मजदुर व्यक्तिगत रूप से या समूहों में कला के साथ अपना संपर्क विकसित कर रहे हैं. लेकिन यह वही कला है जिसे बुर्जुआ के बुद्धिजीवियों ने विकसित किया और मजदुर इसके तकनीको का प्रयोग फिलहाल एक्लेक्टिक (eclectic ) तरीके से ही कर पा रहे हैं. लेकिन क्या यह प्रयोग उनके स्वयं के आतंरिक सर्वहारा दुनिया को अभिव्यक्ति देने के उद्देश्य से हैं? तथ्य यह है कि ऐसा हरगिज नहीं है. मजदुर कवियों के कविताओं में अभाव है एक आर्गेनिक गुणवत्ता की जिसकी ऊपज संस्कृति और कला में विकास के दौरान चली लम्बी और गहरी अंतर्क्रियाओं से ही हो पाती है. हमारे पास कुछ प्रतिभाशाली मजदूरों के साहित्यकर्म जरुर हैं लेकिन यह सर्वहारा साहित्य नहीं है. हालाँकि वे इसके कुछ स्रोत जरुर हो सकतें हैं.

यह संभव है कि हमारे भविष्य के किसी वंशज को-उनके संस्कृति के अलग अलग क्षेत्रों के कुछ स्रोत -हमारे वर्तमान पीढ़ी के कुछ कामों में दिखें; ठीक वैसे ही जैसे हमारे समय के कला-इतिहासकार इब्सेन की थियेटर की जड़े चर्च-रहस्यों में, या impressionism एवं cubism की स्रोत भिक्षुओं के चित्रकला में ढूंढ़ते हैं. लेकिन तथ्य और ज्वीवंतता की दृष्टि से देखें तो हमारे वर्तमान सर्वहारा कवियों का सृजन उस परिकल्पना के हिसाब से बिलकुल आगे नहीं बढ़ रहा है जिसके तहत (भविष्य के) समाजवादी संस्कृति के शर्तों के निर्माण का प्रक्रिया आगे बढाया जाना है...

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